रोग क्या है -परिभाषा, प्रकार, और नियंत्रण,
रोग क्या है ?
रोग का अर्थ शरीर मन एवं आत्मा की उसे अवस्था से है जिसमें शरीर मन एवं आत्मा अपने सामान्य कार्य को सामान्य रूप से संपादित करने में असक्षम होते हैं। शरीर के सामान्य कार्यों में श्वसन, पाचन उत्सर्जन, रक्त परिसंचरण वह गतिशीलता आदि क्रियोओं अर्थात कार्यों वर्णन आता है ।वह अवस्था जब शरीर अपने इन कार्यों को सामान्य रूप से करने में असक्षम होता है शारीरिक रोग कहलाते है । इसी प्रकार मन के सामान्य कार्यों में मानसिक सोच- विचार, मनन चिंतन व मानसिक संवेग आवेग आदि क्रियो का समावेश होता है, वह अवस्था जब मन अपने इन कार्यों को सामान्य रूप से करने में असक्षम सक्षम है मानसिक रोग अथवा मनोरोग कहलाते हैं। वह अवस्था जब आत्मा से ऊर्जा (आध्यात्मिक ऊर्जा) की कमी आ जाती है तथा आत्महीनता की अवस्था उत्पन्न होती है ,आध्यात्मिक रोग कहलाते हैं।रोग का अर्थ शरीर मन एवं आत्मा की उसे नकारात्मक अवस्था से भी होता है जिसमें शरीर मन में आत्मा की ऊर्जा से हास हो जाता है। ऊर्जा में हास होने पर शरीर, मन एवं आत्मा की अपने कार्यो के प्रति सक्रियता कम हो जाती है तथा उनके कर्म में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। शरीर में ऊर्जा की कमी होने पर यह स्वयं को कार्य करने में असक्षम अनुभव करते हैं, ठीक इसी प्रकार मन आत्मा में भी ऊर्जा की कमी होने पर यह स्वयं को कार्य करने में असक्षम अनुभव करते हैं इस अवस्था के अंतर्गत शरीर, मन, एवं आत्मा में एकरूपता का अभाव हो जाता है , रोग कहलाता है।
रोग की परिभाषा :-
स्वास्थ्य को परिभाषित करते हुए आयुर्वेद शास्त्र के विद्वान आचार्य सुश्रुत प्रसिद्ध ग्रंथ सुसमें रहते हैं-
समदोष:समाग्निश्च समधातु मलक्रिय।
प्रसन्नात्मेन्द्रिय मन: स्वास्थ्य इत्यभीधियते।
अर्थात जिसके त्रिदोष सम अवस्था में है जिसके शरीर में अंजन का व्यापार सम ह में मेलों की सम स्थित है इसके साथ-साथ
जिसकी इंद्रियां मन व आत्मा में प्रसन्नता के भाव हैं वही व्यक्ति स्वस्थ है इसके विपरीत वह व्यक्ति जिसमें इसके विपरीत लक्षण प्रकट हो रहे हैं वह अस्वस्थ अथवा रोगी व्यक्ति कहलाता है।
इस प्रकार विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O) द्वारा स्वास्थ्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है।
Health is a state of complete physical, mental, social and spiritual well babsence of disease or infirmity.
अर्थात केवल रोगों की अनुपस्थिति मात्र को ही स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है अपितु स्वास्थ्य तो वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्तर पूर्ण रूप से स्वस्थ हो।
रोग के कारण:-
रोग के कारण के संदर्भ में अलग-अलग चिकित्सा पद्धतियां अलग-अलग धारणाएं रखती हैं जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।
क. एलोपैथी चिकित्सा अथवा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार
शरीर में भारी रोगाणु जीत जीवाणु अथवा विषाणुओं को संक्रामक रोग का मूल कारण है बाहरी रोगाणुओं के संक्रमण होने से शरीर में अनेक असामान्य एवं आशाए लक्षण रोग के रूप में प्रकट होते हैं
ख. आयुर्वेदिक चिकित्सा के अनुसार
विकृत आहार विहार रोग का मूल कारण होता है। विकृत आहार विहार के कारण शरीर में वात, पित्त, कफ नामक त्रिदोषो में विकृतियां उत्पन्न होती है जिसके कारण शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। विकृत आहार विहार के कारण ही शरीर की धातुओं एवं मलों में विषमता उत्पन्न होती है। यह विषमताएं विभिन्न रोगों को उत्पन्न कर देती हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार।
अप्राकृतिक जीवन यापन एवं प्राकृतिक आहार विहार को रोग के मूल कारण के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसके अनुसार अप्राकृतिक जीवन यापन एवं अप्राकृतिक आहार बिहार के कारण शरीर में विजातीय पदार्थो का भंडारण होने लगता है जब शरीर में विजातीय विषो की मात्रा अधिक हो जाती है तब इन विषो का शरीर से बाहर निकालने के लिए शरीर को रोग का सहारा लेना पड़ता है।
एक्यूप्रेशर चिकित्सा के अनुसार
कार्य करते समय शरीर में विषाक्त तत्वों ( होमोटाक्सिन्स )की उत्पत्ति होती है। शरीर में यह विषाक्त तत्व एवं श्रृंखला का निर्माण कर लेते हैं। यह श्रृंखला जिस अंग अथवा स्थान पर बनती है उसे अंग अथवा स्थान में ऊर्जा प्रभाव बाधित हो जाता है परिणाम स्वरुप उसे अंग से संबंधित रोग उत्पन्न हो जाता है।
स्पर्श चिकित्सा के अनुसार
शरीर में नकारात्मक ऊर्जा की अधिकता ही रोग का मूल कारण है नकारात्मक ऊर्जा की अधिकता होने पर विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक रोग पैदा होते हैं।
उपनिषद साहित्य में लोगों व उनके कर्म पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि मानव शरीर में रोग दो प्रकार से आते हैं
अ. प्रारब्ध – पूर्व जन्म के बुरे कार्यों के फल भोग हेतु मानव को रोग प्राप्त होते हैं।
ब. कुपथ्य जन्य- निषिद्ध खानपान एवं असंयमित आहार बिहार के कारण रोग उत्पन्न होते हैं। इस कुपथ्य जन्य रोगों के भी चार प्रकार होते हैं।
1. सांध्य रोग – ऐसी रोग जो औषधि सेवन से दूर हो जाते हैं साध्य रोग कहलाते हैं।
2. कृच्छसाध्य रोग –ऐसे रोग जो अधिक पोषक सेवन तथा आहार विहार पर पूर्ण संयम करने के उपरांत ठीक हो जाते हैं कृच्छसाध्य रोग कहलाते हैं।
3. राज्य रोग – ऐसी रोग जो औषधि सेवन एवं आहार विहार सियाम के प्रभाव से दब जाते है याप्य रोग कहलाते हैं।
4. असाध्य रोग–ऐसे रोग जो औषधि सेवन एवं आहार विहार पर संयम के पश्चात भी ठीक ना होते हैं, तथा ना ही देबते हैं,यह साध्य रोग कहलाते हैं।
अब रोगों के कर्म का ज्ञान प्राप्त होने के बाद अब मन में निश्चित ही इन लोगों के विषय में और अधिक जानने की जिज्ञासा आवश्यक उत्पन्न हुई होती है अब मन में यह प्रश्न उत्पन्न होना भी स्वाभाविक है कि इन लोगों को विस्तृत स्वरूप को हम किस प्रकार अलग-अलग कर सकते हैं अतः अब हम लोगों के वर्गीकरण पर भी ध्यान एकाकृत करते हैं|
रोग के प्रकार
शारीरिक रोग
मानसिक रोग
आध्यात्मिक रोग
1.शारीरिक रोग–
आधुनिक विज्ञान मानव शरीर को कल 11 तंत्रो में विभाजित करता है। जब तक शरीर के यह तंत्र अपने कार्य को भली भाती संपादित करते रहते हैं तब तक यह शरीर स्वस्थ बना रहता है। किंतु जब इन तंत्रो में विकार उत्पन्न हो जाता है और यह तंत्र अपने कार्य को भली-भांति संपादित करने में असक्षम हो जाते हैं ।शरीर की यह व्यवस्था शारीरिक रोग कहलाती है मनुष्य के शारीरिक रोगों को हम इस प्रकार वर्गीकरण कर कर सकते हैं।
पाचन तंत्रके रोग, श्वसन तंत्र के रोग, उत्सर्जन तंत्र के रोग, अस्थि तंत्र के रोग, पेशीय तंत्र के रोग, अध्यावरणीय तंत्र के रोग, रक्त परिसंचरण तंत्र के रोग, अंन्त:स्र्वी तंत्र के रोग, प्रतिरक्षा तंत्र के रोग, तंत्रिका तंत्र के रोग, प्रजनन तंत्र के रोग।
2. मानसिक रोग– मनुष्य द्वारा मानसिक क्रियो अथवा कार्य को भली प्रकार संपादित नहीं कर पाने की अवस्था मानसिक रोग कहलाती है मन में अपनी एक विशेष प्रकार के ऊर्जा होती है जिसे मानसिक ऊर्जा की संज्ञा दी जाती है इसके माध्यम से विभिन्न मानसिक कार्य किए जाते हैं विषयों पर विचार मंथन किया जाता है तर्क वितर्क किया जाता है पूर्व की अनुभूतियों को संचित किया जाता है तथा भविष्य की योजनाओं का निर्माण किया जाता है जब इस मानसिक ऊर्जा में वृद्धि अथवा कमी है संतुलन हो जाता है तब इस संतुलन की अवस्था में उपरोक्त मानसिक कार्य भली-भांति संपादित नहीं हो पाए अथवा इन मानसिक कार्यों में बाधा उत्पन्न होती है इस अवस्था को मानसिक रोग अथवा मनोरोग कहा जाता है। इसकी व्याख्या मानव व्यवहार के साथ जोड़कर करें तो कहा जाता है कि यदि किसी मनुष्य के व्यवहार में सकारात्मक का अभाव है तथा वह व्यक्ति दूसरों के साथ अपना शाम जैसे स्थापित नहीं कर पता है तब उसे व्यक्ति को मानसिक रोगों की श्रेणी में रखा जा सकता है मानसिक रोगों को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
1. उत्तेजनात्मक प्रभाव वाले मानसिक रोग :– इसके अंतर्गत उन मनोरोगों का वर्णन आता है जिसमें मानसिक ऊर्जा को सामान्य रूप से वृद्धि होती रहने देती है मानसिक तनाव उड़ विभिन्नता क्रोध ईर्ष्या बेचैनी एवं अनिंद्र आदि रोग इस वर्ग के रोग है।
2. शामक प्रभाव वाले मानसिक रोग :- इसके अंतर्गत उन मनोरोगों का वर्णन आता है जिसमें मानसिक ऊर्जा में असामान्य रूप से कमी हो जाना है। मानसिक अवसाद, उत्साह का अभाव, चिंता, घबराहट, स्मरण शक्ति में कमी, अति निद्रा व आलस्य आदि रोग इस वर्ग के रोग है।
आध्यात्मिक रोग:- इस रोग का संबंध आत्मा की ऊर्जा से होता है। आत्मा की यह ऊर्जा आध्यात्मिक ऊर्जा अथवा चेतना कहलाती है। इस ऊर्जा के माध्यम से आत्मा क्रियावन एवं बलवान बनी रहती है जबकि इस ऊर्जा के अभाव में आत्मा बलहीन हो जाती है, आत्मा की यह बलहीनता एवं रुग्णता ही आध्यात्मिक रोगों को जन्म देती है ।
विकृत आहार विहार करते हुए कुमार्ग पर चलने से, भजन, कीर्तन, सत्संग, एवं स्वाध्याय आदि के अभाव में आत्मा की आध्यात्मिक ऊर्जा क्षीण पड़ जाती है ,तथा वह व्यक्ति आध्यात्मिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है। आध्यात्मिक ऊर्जा के क्षीण पड़ने का नकारात्मक प्रभाव , मानसिक और शारीरिक स्तर पर भी पड़ता है इससे उसकी मानसिक एवं शारीरिक ऊर्जा भी कमजोर पड़ जाती है तथा इसी कारण आध्यात्मिक रोगों से ग्रस्त व्यक्ति जल्दी ही मानसिक एवं शारीरिक रोगों की चपेट में भी आ जाता है । तात्पर्य यह है की आध्यात्मिक रोग मानसिक एवं शारीरिक रोगों की तुलना में अधिक गंभीर होते हैं, जो व्यक्ति के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करते हैं, आध्यात्मिक रोगों के अंतर्गत आत्म बल में कमी आंतरिक भय की अनुभूति, आंतरिक अशांति, कमजोर एवं प्रभावहीन व्यक्तित्व एवं हीनता के भाव आदि रोगों का वर्णन आता है।
उदाहरण देकर समझाया जाए तो जो संबंध एक रथ, सारथी एवं रथी का होता है। वही संबंध शरीर, मन, एवं आत्मा का होता है। यहां पर शरीर की तुलना रथ के साथ, मन की तुलना सारथी के साथ एवं आत्मा की तुलना रथी के साथ की गई है। जिस प्रकार रथ, सारथी, एवं रथी आपस में गहराई से जुड़े होते हैं उसी प्रकार शरीर मन एवं आत्मा का आपस में बहुत घनिष्ठ संबंध होता है। इस घनिष्ठता के कारण ही शारीरिक रोग, मानसिक रोग एवं आध्यात्मिक रोग एक दूसरे के पूरक होते हैं अर्थात शारीरिक रूपी रथ में शादी शारीरिक रोग होते ही मन रूपी सारथी में मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं जो आगे चलकर आत्मा रूपी रथी से भी हलचल अथवा आध्यात्मिक रोगों को पैदा कर देते हैं।
अंत इन रोगो को निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है।
शारीरिक रोग – हाथ- पैर, पेट व सिर आदि शारीरिक अंगों में होने वाली पीड़ा शारीरिक रोग कहलाती है।
मानसिक रोग- काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या द्वेष आदि विकारों के कारण उत्पन्न होने वाली पीड़ा मानसिक रोग कहलाती है।
आगंतुक रोग- दैवीय आपदा जैसे अत्यधिक गर्मी, सर्दी, बरसात आदि के कारण उत्पन्न पीड़ा आगंतुक रोग कहलाती है।
स्वाभाविक रोग- भूख- प्यास निंद्रा -अनिद्रा आदि प्रतिदिन की अनुभूतियों से उत्पन्न पीड़ा स्वाभाविक रोग कहलाती है।
प्राकृतिक चिकित्सा में रोग के दो वर्गों प्रकारों का वर्णन किया गया है।
तीव्र रोग- तीव्र रोगों से तात्पर्य उन रोगों से होता है जो तेजी से शरीर में आते हैं एवं उसी तीव्रता के साथ शरीर से चले जाते हैं। इन रोगों के द्वारा शरीर की सफाई होती है। तथा सफाई होने से शरीर की जीवन शक्ति एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। इस प्रकार इन तीव्र रोगों को शरीर के लाभकारी अर्थात मित्रों की श्रेणी में रखा जाता है ।तीव्र रोग साध्य श्रेणी के रोग होते हैं। तीव्र जुकाम, बुखार, खांसी, वामन एवं पेचिश आदि इस वर्ग के रोग हैं।
जीर्ण रोग- इन रोगों का मतलब उन रोगों से होता है जो धीरे-धीरे शरीर में आते हैं एवं शरीर में आने के बाद शरीर में ही ठहर जाते हैं। इन रोगों को समय अवधि बहुत अधिक होती है तथा समय अवधि अधिक होने के कारण इन रोगों के कारण शरीर की जीवन शक्ति एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। इन जीर्ण रोगों को जीवन के लिए घातक माना जाता है, क्योंकि यह रूप शरीर की जीवन शक्ति को काम करते हुए मृत्यु की ओर ले जाते हैं जैसे लंबे समय का जुकाम, बुखार, खांसी, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, एवं कैंसर आदि इस वर्ग के रोग हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं की रोग का अर्थ विषम, विपरीत अथवा प्रतिकूल अवस्था से है।जबकि स्वास्थ्य का अर्थ सम अवस्था, अनुकूल अवस्था से है। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों में रोग रूपी प्रतिकूल अवस्था को अलग-अलग रूप से अभिव्यक्त किया गया है। रोग को आचार्य सुश्रुत अपने ग्रंथ सुश्रुत संहिता में अत्यंत स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हैं तथा रोगों की अनुपस्थिति मात्रा को ही स्वस्थ नहीं कहते हुए स्वास्थ्य शरीर, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक रूपों से होने कीअभिव्यक्त करते हैं। आगे आने वाली पोस्टों में हम प्रत्येक रोग की प्राकृतिक अथवा वैकल्पिक चिकित्सा द्वारा सभी रोगों के निदान का वर्णन करेंगे।
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रोग का अर्थ शरीर मन एवं आत्मा की उसे अवस्था से है जिसमें शरीर मन एवं आत्मा अपने सामान्य कार्य को सामान्य रूप से संपादित करने में असक्षम होते हैं।