अष्टांग योग एवं षट्कर्म

अष्टांग योग एवं षटकर्म

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अष्टांग  योग और षष्ठ कर्म दोनों ही योग और आयुर्वेद के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं। ये दोनों ही शरीर और मन की शुद्धि, स्वास्थ्य और आत्म-साक्षात्कार की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

Table of Contents

अष्टांग  योग (ashtang  Yoga)

अष्टांग योग भारतीय योग परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है, जिसका उद्देश्य शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास के माध्यम से संपूर्ण व्यक्ति को सशक्त बनाना है। “अष्टांग” का अर्थ है “आठ अंग”, जो इस योग प्रणाली के आठ विभिन्न पहलुओं को दर्शाता है। यह योग प्रणाली “योगसूत्र” के रचयिता महर्षि पतंजलि द्वारा स्थापित की गई थी।

1. यम (Yama) 

यम का अर्थ है “नियम” या “संयम”। यह पांच नैतिक अनुशासन होते हैं—अहिंसा (हिंसा का त्याग), सत्य (सत्य का पालन), अस्तेय (चोरी का त्याग), ब्रह्मचर्य (संयम), और अपरिग्रह (अधिकारों का त्याग)। ये अनुशासन साधक को बाहरी दुनिया के साथ सही तालमेल स्थापित करने में मदद करते हैं।

2. नियम (Niyama)

नियम भी पाँच होते हैं—शौच (शारीरिक और मानसिक शुद्धि), संतोष (संतोष), तप (आत्म-अनुशासन), स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन), और ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में समर्पण)। ये नियम साधक को अपने भीतर अनुशासन और शुद्धि लाने के लिए प्रेरित करते हैं।

3. आसन (Asana)

आसन का तात्पर्य शारीरिक मुद्राओं से है। योग में आसनों का अभ्यास शारीरिक शक्ति, लचीलापन, और संतुलन को बढ़ाने के लिए किया जाता है। यह शारीरिक और मानसिक स्थिरता की प्राप्ति का साधन है।

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4. प्राणायाम (Pranayama)

प्राणायाम का अर्थ है “श्वास पर नियंत्रण”। यह श्वास-प्रश्वास की विभिन्न तकनीकों का अभ्यास है, जो शारीरिक और मानसिक ऊर्जा को नियंत्रित करने में मदद करता है। प्राणायाम जीवन शक्ति (प्राण) को संतुलित और नियंत्रित करता है।

5. प्रत्याहार (Pratyahara)

प्रत्याहार का अर्थ है “इंद्रियों का नियंत्रण”। इसमें साधक अपनी इंद्रियों को बाहरी विषयों से हटाकर अपने भीतर की ओर ले जाता है। यह मानसिक शांति और एकाग्रता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है।

  • 6.धारणा (एकाग्रता)
  •                                         धारणा का तात्पर्य एक बिंदु या वस्तु पर ध्यान केंद्रित करने से है। यह मन को एक जगह स्थिर रखने का अभ्यास है, जिससे व्यक्ति धीरे-धीरे अपने विचारों को नियंत्रित करना सीखता है।
  • 7. ध्यान (मेडिटेशन)
                                            ध्यान योग का सातवां अंग है, जिसमें ध्यान को एक बिंदु पर स्थिर रखा जाता है। इसका उद्देश्य मन की शांति और ध्यान की गहराई में प्रवेश करना होता है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने अंतरतम से जुड़ता है और आत्मज्ञान की दिशा में अग्रसर होता है।
  • 8.समाधि (आध्यात्मिक एकता)
                                               समाधि अष्टांग योग का अंतिम और सर्वोच्च चरण है, जहाँ व्यक्ति का मन पूर्णतः स्थिर और शांत हो जाता है। यह अवस्था आत्मा और परमात्मा के मिलन की स्थिति होती है, जिसे आत्मज्ञान या मोक्ष भी कहा जाता है।

अष्टांग योग के लाभ

अष्टांग योग के नियमित अभ्यास से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं:

  • शारीरिक लाभ: यह शरीर को स्वस्थ, मजबूत और लचीला बनाता है। इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।
  • मानसिक लाभ: ध्यान और प्राणायाम के माध्यम से मानसिक तनाव कम होता है और मन में शांति का अनुभव होता है।
  • आध्यात्मिक लाभ: योग साधना के माध्यम से व्यक्ति आत्मज्ञान और मोक्ष की दिशा में अग्रसर होता है।

षष्ठ कर्म या षट्कर्म

योग की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जिसे “षट्कर्म क्रियाएँ” कहा जाता है। ये छह शुद्धिकरण विधियाँ हैं जो शारीरिक और मानसिक शुद्धि के लिए आवश्यक हैं। षट्कर्म का उद्देश्य शरीर के विभिन्न अंगों और प्रणालियों को शुद्ध करना है ताकि शरीर स्वस्थ रहे और साधक का ध्यान और ध्यानाभ्यास गहरा हो सके।

षष्ठ कर्म की छह विधियाँ:
1. नेति (Neti)

नेति का प्रयोग नासिका मार्ग की शुद्धि के लिए किया जाता है। यह दो प्रकार की होती है—जल नेति और सूत्र नेति। जल नेति में गुनगुने खारे पानी का उपयोग किया जाता है, जबकि सूत्र नेति में कपास या रबर का धागा नासिका मार्ग से गुजारा जाता है।

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2. धौति (Dhauti)

धौति पेट और आहार नली की शुद्धि के लिए की जाती है। यह विभिन्न प्रकार की होती है—जल धौति, वमन धौति, और वस्त्र धौति। यह क्रिया पाचन तंत्र को शुद्ध करने और उसमें जमा अशुद्धियों को बाहर निकालने में सहायक होती है।

3. नौली (Nauli)

नौली पेट की मांसपेशियों को साफ करने और उन्हें मजबूत करने की क्रिया है। यह क्रिया पेट की विभिन्न मांसपेशियों को नियंत्रित करने में मदद करती है और पाचन तंत्र को शुद्ध करती है।

4. बस्ति (Basti)

बस्ति क्रिया मलाशय की शुद्धि के लिए की जाती है। यह शरीर के निचले हिस्से को शुद्ध करने और आंतों को स्वस्थ रखने में सहायक होती है। बस्ति दो प्रकार की होती है—जल बस्ति और सूखा बस्ति।

5. कपालभाति (Kapalbhati)

कपालभाति एक श्वास-प्रश्वास की विधि है, जिसमें तीव्रता से श्वास बाहर छोड़ी जाती है। यह क्रिया मस्तिष्क और श्वसन तंत्र की शुद्धि के लिए की जाती है, और यह मन को शांत और एकाग्र करने में मदद करती है।

6. त्राटक (Trataka)

त्राटक क्रिया आँखों की शुद्धि और एकाग्रता बढ़ाने के लिए की जाती है। इसमें बिना पलक झपकाए किसी बिंदु, ज्योति या वस्तु को देखा जाता है। यह मानसिक शक्ति और दृष्टि को मजबूत करने में सहायक है।

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 निष्कर्ष:

                                        अष्टांग योग महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित एक गहन योग प्रणाली है, जो व्यक्ति को संपूर्ण विकास की ओर ले जाती है। इसके आठ अंग व्यक्ति को न केवल शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखते हैं, बल्कि उसे आध्यात्मिक मार्ग पर भी अग्रसर करते हैं।षष्ठ कर्म भी  योग का  महत्वपूर्ण पहलू हैं, जो साधक के शारीरिक, मानसिक, और आत्मिक शुद्धि और विकास के लिए आवश्यक हैं। अष्टांग  योग में जहाँ बाहरी एवं आंतरिक  अनुशासन और शुद्धि पर बल दिया जाता है, वहीं षष्ठ कर्म शारीरिक शुद्धि के माध्यम से साधक को आंतरिक शांति और आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर करता है। इन दोनों का अभ्यास साधक को जीवन के उच्चतम लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायता करता है।

                                       जैसे धारणा ,ध्यान, समाधियों के लिए आसान उपयोगी है, वैसे ही हठयोग के षट्कर्म तथा मुद्राएं भी आसन तथा प्राणायाम सिद्धि में अत्यंत उपयोगी है। इसलिए आसनों के साथ इनका वर्णन भी किया गया है। इन क्रियाओं के द्वारा देह , प्राण, इंद्रियों की विशेष शुद्धि होती है, जिसका प्रभाव मन – बुद्धि पर भी पड़ता है, और धारणा, ध्यान आदि में प्रगति शीघ्र होने लगती है। दीर्घकाल तक समाधि में बैठने के पूर्व बस्ति कर्म के द्वारा मल को, और ब्राजोली क्रिया के द्वारा मूत्र को बाहर निकाल दिया जाता है। और ब्राहदातुन- कुंज्जर क्रिया- धोती कर्म के द्वारा आमाशय तथा अन्न प्रणाली को स्वच्छ किया जा जाता है। यदि इन क्रियाओं को न किया जाए तो देह में पड़ा हुआ मल -मूत्र विकार उत्पन्न करके शरीर को रोगी बना देगा। अतः इन क्रियो का करना आवश्यक होता है।

इति 

 

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