योग शब्द का अर्थ
‘योग’ – एक गुण एवं जटिल शब्द है संस्कृत व्याकरण का अगर अवलोकन करें तो योग शब्द यूज समाधौ धातु से बना है। महर्षि पणिनी के अनुसार तीन यूज धातु है।
क. युज समाधि– दिवादिगणीय, दिवादिगणीय युज धातु का अर्थ है समाधि। युज का अर्थ है जुड़ना, अर्थात समाधि की प्राप्ति के लिए जो भी साधनाएं बताई गई है साधक उन साधनों की और जुड़े अर्थात जो भी साधनाएं समाधि की सिद्धि करें साधक उन साधनों को आत्मसात करें यह योग का पहला अर्थ है।
ख युजिर योग – रूधादिगणीय, रुधादिगणीय धातु का अर्थ है जोड़ना मिलाना मेल करना। सृष्टि की समस्त वस्तुएं जुड़कर ही बनी है जितने भी भौतिक पदार्थ हमें दिखाई देते हैं वह सब जोड़कर योग के प्रतिफल हैं गणित शास्त्र का अध्ययन करें तो पूरी गिनती जोड़कर ही होती है जैसे . 1 + 1=2, 9+9=18 अगर हम हमने रसायन शास्त्र का अध्ययन किया है तो पता ही है कि पानी का सूत्र है H2O अर्थात दो अणु हाइड्रोजन व एक अणु ऑक्सीजन के मिलकर जल H2O बनाती है। यह योग का ही प्रतिफल है।
ग. युज संयमने, – चुरादिगण चुरादीगण धातु का अर्थ स्पष्ट है- यूज अर्थात जोड़ना संयम अर्थात मन को वश में करने की विध्या। मन को वश में करने की विध्या वास्तव में योग ही है और साधक को चाहिए कि वह उस विध्या को आत्मसात करें महा ऋषि पतंजलि ने धारणा, ध्यान व समाधि के योग को वास्तव में संस्कृत व्याकरण के आधार पर योग शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है
1 युज्यते एतद इति योग – इस व्युत्पत्ति के अनुसार कर्मकारक में योग शब्द का अर्थ चित्त की वह व्यवस्था है जब चित्त की समस्त व्रतियों में एकाग्रता आ जाती है । वहां पर “योग” शब्द का अर्थ उद्देश्य से प्रयोग हुआ है।
2. युज्यते अनेन इत योग – इस व्युत्पत्ति के अनुसार करण कारक में योग शब्द का अर्थ वह साधन है जिसमें समस्त चित्र वृतियों में एकाग्रता लाई जाती है। यहां “योग” शब्द साधनार्थ प्रयुक्त हुआ है। इसी आधार पर योग के विभिन्न साधनों को जैसे हट, मंत्र, भक्ति, ज्ञान, कर्म, आदि को हठ योग, मंत्रयोग, भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग, आदि के नाम से पुकारा जाता है।
युज्यतेSसृमन इति यो – इस व्युत्पत्ति के अनुसार योग शब्द का अर्थ वह स्थान है जहां चित्त की वृत्तियों एकाग्रता उत्पन्न की जाती है। अतः यहां पर अधिकरण कारण की प्रधानता है। योग क्या है इस विषय पर स्वामी विध्यानंद सरस्वती ने योग विज्ञान नामक पुस्तक में योग की सुदिर्ध व्याख्या इस प्रकार की है।
1. यम नियम आदि योग के अंगो का निष्ठा पूर्वक सतत अभ्यास करते हुए अंत में असम्प्रज्ञात समाधि के द्वारा विशुद्ध रूपापास्वरूपावस्थिति प्राप्त कर लेना योग है।
2. योग समाधि की पराकाष्ठा पर पहुंचकर आत्मदर्शन पूर्वक स्वरूपस्थिति यान आत्मस्थिति अवस्था को प्राप्त कर लेना योग है।
3. ध्यान परायण तथा समाधिनिष्ठ होकर स्थूल और सूक्ष्म अतीन्द्रिय तत्वों का योग दृष्टि के द्वारा प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए अंत में चैतन्य स्वरूप आत्मा के स्तर तक लेना योग है।
4. आध्यात्मिक योग साधना के द्वारा दैहिक तथा आत्मिक सर्वागीण विकास धारा के साथ-साथ आत्म स्फूर्ति को पा लेना, यही योग है।
5. योगनिष्ठ होकर योगी, दीर्घकाल तक योगाभ्यास करता हुआ समाधिलब्धं प्रत्यक्षात्मक आत्मज्ञान के परिणाम स्वरूप पूर्ण रूपेण ब्राही स्थिति को प्राप्त करके जीते जी जीवनमुक्त बन जाना ही योग है ।
6. भू-लोक, अंतरिक्ष लोक, घु-लोक में स्थित निखिल तत्व समूहों को योग दृष्टि यानी समाधि दृष्टि के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में साक्षात्कार करते हुए, उन तत्वों को लांघते हुए, अतिक्रमण करते हुए सर्वतो भवेन ब्रह्म स्वरूप में स्थित प्राप्त कर लेना ही योग है I
इति