योग एवं भारतीय परम्परा,

 योग तथा भारतीय परम्परा।     

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, तवमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
      त्वमेव विद्या च द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देवदेवं।।”

                        

                                                                            भारतीय परंपरा तथा योग का इतिहास जानने के लिए, हमें भारतीय इतिहास के पिछले 5000 वर्षों का सिंहावलोकन करना होगा। योगाभ्यास का सर्वप्रथम चित्रण लगभग 3,000 ई पू. में सिंधु घाटी सभ्यता के समय की मोहरो और मूर्तियों में मिलता है। ऐसे ही एक मोहर पर भगवान शिव, जिनको “महायोगी” कहा गया है, कि प्रतिमा के आदि रूप का चित्रण है। मोहर पर वे जंगली जंतुओं से घिरे “योग मुद्रा” में आसींन दिखाई गए हैं। भगवान शिव को “पशुपतिनाथ” भी कहते हैं ।अपने इस रूप में वे पशु जीवजंतुओं के रक्षक हैं

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         महायोगी शिव{ श्रीपशुपति नाथ}
 
 

                                                    नेपाल  के काठमांडू में स्थित पशुपतिनाथ का एक विशाल भव्य मंदिर भी है।”हिंदू धर्म” का अर्थ बहुत विशाल है। हिंदू धर्म का अर्थ मात्र “हिंदुत्व” नहीं है और न ही यह  कोई संप्रदाय है यह तो जीवन दर्शन है । इसका कोई संस्थापक नहीं है। यह “चिरन्तन प्रकृति अथवा “सर्व भोम” विधान है। ।इसका न तो आदि है न अंत । हमारे धर्म का आशय अपनी धार्मिक, सामाजिक, आदि सभी अभिव्यक्तियों में ब्रह्मांड का संचालन करने वाली व्यवस्था से है।अर्थात परम शक्तिमान ईश्वर जिसे हम ने तो जीव कह सकते हैं न निर्जीव, जो  इंन्द्रिय रहित है, असंयुक्त है, सब का आधार है, गुणातीत है, तथापि गुणों का उपभोग करता है, सब जीवो के भीतर विराजमान है अचल है तथा चल भी है अपनी सूक्ष्मता के कारण अप्रत्यक्ष है, अति निकट है तथा अति दूर भी वही है, वह जीवो के बीच विभाजित नहीं है वह भक्षण करता है तथा सर्जन करता है। वह सभी प्रकाश को का प्रकाश है अंधकार से परे कहा जाता है प्रज्ञा, प्रज्ञा पदार्थ, प्रज्ञा धारा, बोधगम्य, सभी के हितों में आसीन है।  

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                                                                             योग विध्या भी भारत के ऋषि मुनियों के अमूल्य धरोहर है। सभी श्रुति स्मृतियां योग की महिमा का वर्णन कर रही है समाधि से कर्म क्षेत्र तक योग का व्यापक वर्णन हमारे शास्त्रों में विद्यमान है योग सभी संभावनाओं और मतदान तरों में निर्विवाद सर्व होम स्वीकार्य धर्म है। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यवस्थित ग्रंथ पतंजलि का *योग सूत्र” है। यह ग्रंथ न केवल एक उच्च कोटि की साहित्यिक रचना है वरन इसमें योग को एक “दर्शन” के रूप में स्थापित किया गया है। तथा इस ग्रंथ में परिवारिक जीवन में रहने वाले एक आम जनमानस को भी केवल्य की प्राप्ति बड़ी ही साधारण विधि में बतायी गई है जिसका उपयोग कर एक साधारण मनुष्य भी “परम चैतन्य” अथवा “केवल्य” को प्राप्त कर सकता है इसी संदर्भ में महा ऋषि घेरृण्य का घेरृण्य संहिता” नामक ग्रंथ जिसमें “षट्कर्म” विधि अपनाकर शरीर को शुद्ध करने के पश्चात कठिन तप कर केवल्य अथवा परमात्मा को प्राप्त करने की विधि बताई गई है।
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