प्रस्तावना/ Introduction
मानव मात्र के नैतिक, आर्थिक, कलात्मक औरआध्यात्मिक विकास का प्रमुख आधार स्वस्थ ही है। ” चरक संहिता “
“ योग” एक ऐसा शब्द है,यदि जिसकी प्रस्तावना/ Introduction किया जाए तो इसका वर्तमान में सबसे अधिक दुरुपयोग किया गया है। पिछले पच्चीस वर्षों में इसे विभिन्न विचार व्यक्त करने वाले विभिन्न अर्थ प्रदान किये गये है, किसी रहस्य का बोध कराने वाले शारीरिक व्यायाम के अर्थ में इसका सर्वाधिक प्रयोग किया गया है। कभी-कभी इसे कलाबाजी से भी सहयोजित किया गया है अब “योग एक ऐसा शब्द है, जो पोस्टरों भड़कीले पत्रिकाओं के आवरण और कहना आवश्यक नहीं कि प्रकाशकों की सूची की ओर से बरबस ध्यान आकर्षित करने का माध्यम बन गया है।
मैं पारिवारिक जीवन में होने के कारण सप्ताह में तीन बार योग एवं ध्यान का अभ्यास करता हूं जिससे मुझे स्वस्थ जीवन एवं शांति प्राप्त होती है। प्राय सभी जगह हम योग के शिक्षालय पनपते पाएंगे जिनमें बार-बार सांसो के लिए विराम देते हुए संभवत है “स्वीटडिश” ड्रिल सिखाई जाती है। इसमें शिक्षक अपने शरीर को विचित्र तरीके से तोड़ मरोड़ लेता है तथा शिक्षार्थी फर्श पर केवल पलाथी मारकर बैठने की अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाते। इस प्रकार बैठना भी उन्हें एक असुविधाजनक लगता है जिसके कारण वह बहुत देर तक बैठ भी नहीं पाते हैं।
एक प्राकृतिक चिकित्सक होने के नाते और साथ ही योग की परंपराओं में पलने के कारण मुझे लगा कि मैं इस विषय पर एक ऐसा ब्लॉग बना सकता हूं जिसमें सर्वप्रथम इस विद्या के सभी तात्विक अर्थों को दर्शाने के लिए स्पष्ट किया गया हो जिस के अभ्यास से व्यक्ति आत्मज्ञान और चेतना के पद की ओर अग्रसर होता हो। मेरा विचार है कि अंत काल से चली आ रही इस प्राचीन विद्या के किसी भी पक्ष का वर्णन करने से पहले यह विद्या क्या है इसे समझना बहुत आवश्यक होगा। इसकी दुरूह कल्पनाओं को सरल रूप से समझने ,और अवधारण करने के उद्देश्य से संबंधित विचारों को स्पष्ट रूप से और उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष में प्रस्तुत करना आवश्यक है । अतः अवधारणा के उपरांत आता है व्यवहारिक पक्ष। इस संबंध में मैंने बहुत धीरे-धीरे क्रमिक रूप से आगे बढ़ने पर जोर दिया है योग अति प्राचीन विद्या होने के नाते, योगासन तत्कालीन व्यक्ति को जीवन चर्या के अनूरूप बनाए गए थे। उस समय लोगों को अपने शरीर से के अधिक श्रम करना पड़ता था। हमारी पृथ्वी पर जीवन की गति तीव्र नहीं थी यद्यपि उस समय सुखोभोग के इतने साधन नहीं थे तब भी उनके तन व मन में लचीलापन था। पिछली कुछ शताब्दियों से हम इस लचीलेपन को गवा बैठे हैं और शारीरिक तथा मानसिक रूप से भी अधिक दुर्नभ्य और कठोर हो गए हैं अतः योगाभ्यास को उनके पारंपरिक रूप मैं आरम्भ करके सीखना बहुत दुश्वार हो गया है। क्योंकि अब हमारा न तो मन शांत है और न ही शारीरिक लचीलापन, जो योगाभ्यास के लिए सर्वप्रथम अपेक्षित है योग के पथ पर अग्रसर होने से पहले हमें शारीरिक और मानसिक मानसिक रूप से तैयार होना होगा।
योग विध्या भारत के ऋषि मुनियों के अमूल्य धरोहर है। सभी श्रुति स्मृतियां योग की महिमा का वर्णन कर रही है समाधि से कर्म क्षेत्र तक योग का व्यापक वर्णन हमारे शास्त्रों में विद्यमान है योग सभी संभावनाओं और मतदान तरों में निर्विवाद सर्व होम स्वीकार्य धर्म है। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यवस्थित ग्रंथ पतंजलि का *योग सूत्र” है। यह ग्रंथ न केवल एक उच्च कोटि की साहित्यिक रचना है
यह ब्लॉग मेरे उन अनेक प्रयासों में से एक है जो मैं सम्यक स्वास्थ्य की स्थिति का मार्ग खोज निकालने की दिशा में समय-समय पर करता रहता हूं ऐसी स्थिति प्राप्त करने के उपरांत ही हम इस ब्रह्मांड एवं प्रकृति के साथ अनूप अनुरूपता रख सकते हैं।
धन्यवाद