अलग अलग ग्रंथों एवं मतो में योग की परिभाषा

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  योग की परिभाषाये   :-

               भारतीय चिंतन पद्धति व दर्शन में योग विद्या का स्थान सर्वोपरि एवं अति महत्वपूर्ण तथा विशिष्ट रहा है। भारतीय ग्रंथों में अनेक स्थानों पर योग विद्या से सम्बंधित जान ज्ञान भरा पड़ा है। वेदों उपनिषदों , पुराणों, गीता आदि प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रन्थो में योग शब्द वर्णित है। योग की विविध परिभाषाएं अवलोकनार्थ प्रस्तुत है।

 1.वेदों के अनुसार :- वेदों में ज्ञान एवं  विज्ञान की धाराएं विद्यमान है , वेदों का वास्तविक उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना एवं आध्यात्मिक उन्नति करना है। योग को स्पष्ट करते हुए ऋग्वेद में कहा है ।

” यस्मादृते न सिध्यति  यज्ञों विपच्श्रितश्चन;।”
” स धीनां योगमिनवति योगमिन्वति।।। “( ऋग्वेद 1/18/7)
   अर्थात, विद्वानों का कोई भी कर्म बिना योग के पूर्ण अथवा सिद्ध नहीं होता।                                             
   ” सध्दा नो योग आ  भुवत, स राये स पुरंध्याम,”
   ” गमद वाजेगिरा से न:।। ” श्र01/5/3  साम म0 30/2/10, अर्थव 20/29/9.
     अर्थात, वह आदितीय सर्वशक्तिमान अखण्ड आनंद परिपूर्ण सत्य सनातन परम तत्व हमारी समाधि की स्थिति में दर्शन देने के           निमित्त अभिमुख हो।
     ” योगे -योगे तवस्तरं वाजे -वाजे हवामहे।”
     ” संखाय इन्द्र भूतये।।  शुक्ल यजुर्वेद 11/14
     अर्थात, हम सखा ( साधक) प्रत्येक योग अर्थात समाधि की प्राप्ति के लिए तथा हर परेशानी में परम ऐश्वर्यवान इंद्र का आह्वान             करते हैं।
 
वेदों में हठयोग के अंगो का वर्णन भी मिलता है।
                                 अष्टचक्र नवद्वारा देवानां पूरयोध्या तस्यां हिरण्मय: कोश: स्वर्गो ज्योतिषाव्रत:अर्थवेद-10/1/31
                                                                अर्थात, आठ चक्रों , नवद्वारो से युक्त हमारा यह शरीर वास्तव में देवनगरी है इसमें हिरण्य्मय कोष है जो ज्योति  वअसीम आनंद से युक्त है ।वास्तव में यह असीम आनंद की प्राप्ति योग से ही संभव है संक्षेप में कहें तो योग का वर्णन वेदों में बिखरा पड़ा हुआ है तथा आत्कल्याण ही इसका प्रतिपाद्य विषय है।
 

2.  उपनिषदों में योग:- उपनिषद जिन्हें वेदांत भी कहा जाता है इनकी कुल संख्या 108 बताई गई है अनेकनेक उपनिषदों के अनुसार योग का विवेचन इस प्रकार है।

 

3.योग शिखो उपनिषद के अनुसार:-

                                                     प्रांण और अपान की एकता सतरजरूपी की कुंडलिनी की शक्ति और स्वरेत रूपी आत्मतत्व का मिलन, सूर्य स्वर एवं चंद्रस्वर का मिलन एवं जीवात्मा और परमात्मा का मिलन योग है।
योग शिखोपनिषद में योग के प्रकारों की चर्चा करते हुए कहा है-
मंत्रों लयो हठो राजयोगांता भूमिका: क्रमांत।
एक एवं चतूधाडय महायोगाउभिधीयते।।
                                                            अर्थात,  मंत्रयोग लय योग, हठयोग और राजयोग यह चारों जो यथाक्रम भूमिकाएं हैं ।चारों मिलकर यह एक ही चतुर्विध योग है ।जिसे महायोग कहते हैं। उपनिषदो में मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान के साथ-साथ योग को भी आवश्यक माना गया है।
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4. श्वेताश्वतर उपनिषद के अनुसार:-
                                                 योग की अग्नि से बना शरीर जिसे प्राप्त होता है उसे कोई रोग नहीं होता न उसके बुढ़ापा आता है और मृत्यु भी नहीं होती है।
5.अमृतनादोपनिषद के अनुसार:-
                                           प्रत्याहार ,धारणा, प्राणायाम ,तर्क और समाधि यह षडंग योग कहलाता है अन्य एक उपनिषद में आसन प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के छह : अंग बताए गए हैं।
श्वेताश्वतर उपनिषद योग के फलों को स्पष्ट कर कहती है।
                                                                                  योग सिद्ध हो जाने पर शरीर हल्का हो जाता है, शरीर निरोगी हो जाता है, विषयों के प्रति राग नहीं रहता, नेत्रों को आकर्षित करने वाली शरीर की कांति प्राप्त हो जाती है। अर्थात योगी का शरीर आकर्षण हो जाता है उसका स्वर मधुर हो जाता है, शरीर से दिव्य गंध आती है ,शरीर में मल मूत्र की कमी होती है।
कठोपनिषद के अनुसार:-
प्राण, मन व इंद्रियों का एक हो जाना, एकाग्र अवस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों में विमुख होकर इंद्रियों का मन में और मन का आत्मा में लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है।
योग शिखोपनिषद में कहा गया है:-
अपान और प्राण की एकता कर लेना स्वरज रूपी महाशक्ति कुंडलिनी को स्वरेत रूपी आत्मतत्व के साथ संयुक्त करना,
 सूर्य अर्थात पिंगला और चंद्र अर्थात इंडा स्वर का संयोग करना तथा परमात्मा में जीवन का मिलन योग है।
 6. पुराणों के अनुसार :-
                      पुराणों की संख्या 18 बताई गई है अनेकानेक पुराणों में योग के संकेत मिले हैं।
अग्नि पुराण के अनुसार:- ब्रह्म में चित्त की एकाग्रता ही योग है।
नारद पुराण के अनुसार:- नारद पुराण में अष्टांग योग का वर्णन मिलता है योग सूत्र में यम के पांच भेद हैं पर नारद पुराण में क्रमशः( अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह अक्रोधा अनुसूया) सात यमो के बताए हैं।
मत्स्य पुराण के अनुसार :-मत्स्य पुराण का कर्मयोग मुख्य प्रतिपाद्य विषय है कहा गया है कि कर्मयोग से ही परम पद (समाधि )की सिद्धि होती है।
ब्रह्म पुराण के अनुसार:- ब्रह्म पुराण में बताया गया है की शीतल व उष्णता में कभी भी योग के अभ्यास नहीं करना चाहिए ,जलाशय के समीप जीर्ण घर में ,चौराहों पर, सरीसृपोके निकट तथा श्मशान में योग की साधना नहीं करनी चाहिए।
स्कंद पुराण के अनुसार :-स्कंद पुराण में क्रिया योग का विस्तृत वर्णन किया है ।वासुदेव भगवान विष्णु का पूजन क्रिया -योग बताया गया है।
लिंग पुराण के अनुसार :-चित्त की वृत्तियों के विरोध को ही युग कहा जाता है।

 

7.योग सूत्र के अनुसार :-

                                   जो महर्षि पतंजलि ने प्रतिपादित किया है इसमें चार पाद हैं ।समाधि पाद, साधना पाद, विभूति पाद एवं कैव्लय पाद,

 
योग सत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है-
            ‘योगच्श्रितवृतिनिरोध’
 
अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है ।चित्त् का तात्पर्य अंत करण से है। ब्रह्मा करण ज्ञानेंद्रियां जब विषयों का ग्रहण करती हैं, मन उस ज्ञान को आत्मा तक पहुंचाता है ।आत्मा साक्षी भाव से देखता है बुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते हैं। इस संपूर्ण क्रिया से चित्र में जो प्रतिबिंब बनता है , वही वृत्ति कहलाता है । यह चित्र का परिणाम है। चित्त दर्पण के समान है। अतः विषय उस में आकर प्रतिबिम्बित होता है अर्थात चित्र विषयाकार हो जाता है।इस चित्र को विषयाकार होने से रोकना ही योग है।
 
योग के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि ने आगे कहा है_
       ‘तदाद्रष्टु:स्वरूपे§वस्थानाम।। @3
अर्थात, योग की स्थिति में साधक (पुरुष )की चित्र वृत्ति निरूध्दकाल में, केवल्य अवस्था की भांति चेतनमात्र (शुद्ध परमात्मा) स्वरुप में स्थित होती है ।इसलिए यहां महर्षि पतंजलि ने योग को 2 प्रकार से बताया है।
1. सम्प्रज्ञात योग,
2. असम्प्रज्ञात योग,
सम्प्रज्ञात योग में तमोगुण गोणतम रूप से नाम मात्र रहता है ।तथा पुरुष के चित्त में विवेक ख्याति का अभ्यास रहता है । असम्पप्रज्ञात योग में सत्व चित्त में बाहर से तीनों गुणों का परिणाम होना बंद हो जाता है तथा पुरुष शुद्ध कैवल्य  परमात्मास्वरुप में अवस्थित हो जाता है।
8.भागवत गीता के अनुसार :– भागवत गीता में जिज्ञासु शिष्य अर्जुन को स्वयं भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण ने योग की शिक्षा दी है।
 योगस्थ: कुर कर्माणि संगत्यक्त्वा धनंउजय:। 
सिदध्यसिद्धयओ: समो भूत्वा समत्वं 
योग उच्यते।। 2/48
अर्थात – हे धनंजय! तू आसक्ति त्यागकर समत्व भाव से कार्य कर ।सिद्धि और असिद्धि में क्षमता -वृद्धि से कार्य करना ही योग है ।सुख-दुख, जय पराजय, हानि- लाभ शीतोष्ण आदि द्वन्दों में एक रस रहना ही योग है।
    “बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत-दुष्कृते।”
    ” तस्माघोगाय युजस्व योग: कर्मसुकौशलम।। 2/50
अर्थात – कर्मों में कुशलता ही योग है।कर्म इस कुशलता से किया जाए कि कर्म बंधन ना हो सके अर्थात अनासक्त भाव से कर्म करना ही योग है। क्योंकि अनासक्त भाव से किया गया कर्म संस्कार उत्पन्न न करने के कारण भावी जन्मादि का कारण नहीं बनता। कर्मों में
 कुशलता का अर्थ फल की इच्छा ना रखते हुए कर्म का करना ही कर्म योग है।
9.योग वशिष्ठ के अनुसार:- योग वशिष्ठ नामक ग्रंथ की रचना महर्षि वशिष्ठ ने की है तथा किस ग्रंथ में महर्षि वशिष्ठ ने श्री रामचंद्र जी के योग के आध्यात्मिक विधाओं को सरलता से समझाया है। योग वशिष्ठ को महारामायण के नाम से भी जाना जाता है। योग वशिष्ठ कहता है कि संसार सागर से पार होने की युक्ति का नाम योग है।
10.जैन दर्शन के अनुसार:- योग की परिभाषा देते हुए जैन आचार्य विजय विजय अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ ज्योतिषी का में कहते हैं।
“मोक्षेण योजनादेव योगो हत्र निरूध्दयते”
द्रात्रिशिका ( 10-1)
जिन जिन साधनों से आत्मा की शुद्धि और मोक्ष का योग होता है ।अर्थात योग के जिन जिन साधनों से आत्म तत्व की शुद्धि होती है वही साधन योग है।
 योग साधना के लिए जैन मत में महाव्रतो की बात भी की है जो क्रमशः अहिंसा, सत्य, अस्तेय ,ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह है। इसमें भी अहिंसा को बल दिया है ।अगर जैन आचार्यो को देखा होगा तो वह मुंह में सफेद कपड़ा बांधकर चलते हैं ।ताकि कोई भी छोटे-छोटे विषाणुओं की हिंसा न हो सके। स्मरण रहे उपरोक्त पांचों महाव्रत योग के महत्वपूर्ण भाग अष्टांग योग की यम है ।उपरोक्त के अतिरिक्त जैन आचार्य ने 10 धर्म का पालन बताया है।
 1. क्षमा 2.मृदुला 3.सरलता 4शोच 5.सत्य 6.संयम 7.त्याग 8.ओदसिन्य 9.ब्रह्मचर्य 10.अहिंसा
उपरोक्त साधन वास्तव में योग योग क महत्वपूर्ण अंग परंपरागत समय में रहे हैं।  उपरोक्त तथ्यों और तर्कों से स्पष्ट हो गया होगा कि योग का वर्णन कहीं ना कहीं जैन दर्शन में मिलता है।

11.बौद्ध धर्म के अनुसार :-  बौद्ध दर्शन को नास्तिक दर्शन माना जाता है, परंतु बौद्ध दर्शन में निर्वाण प्राप्ति की चर्चा की है और इस निर्माण प्राप्ति के लिए कुछ उपाय बौद्ध आचार्यों ने बताए हैं निर्वाण, समाधि का ही पर्यायवाची शब्द है। योग में जिसे हम समाधि कहते हैं महर्षि पतंजलि ने उसे केवल्य नाम दिया , जैनियों ने मुक्ति कहा है हिंदुओं ने मोक्ष, परन्तु अर्थ एक  ही स्पष्ट होता है कि इस निर्वाण समाधि) की प्राप्ति करना ही योग है और इसके 8 मार्ग बताए गए हैं।  

1. सम्यक दृष्टि:- हमारी चार आर्य सत्यो, दुखों दुख का कारण, दुख नाश वह दुख नाश के लिए सम्यक दृष्टि रहे।
 2. सम्यक संकल्प:- अनात्म  पदार्थों को त्यागने का संकल्प लें।
3.  सम्यक वाक :-अच्छा बोले अनुचित वचनों का त्याग करें।
4. सम्यक कर्म:– सम्यक कर्म का अर्थ है अच्छे कर्म करें जिसमें पूरा कर्मयोग आता है।।
5. सम्यक आजीव:- न्याय पूर्ण धर्मानुसार अपनी आजीविका चलाएं।
6.  सम्यक व्यायाम:– अर्थात बुराइयों को नष्ट कर अच्छे कर्मों के लिए प्र कैंसिल रहना सम्यक व्यायाम है।
7. सम्यक स्मृति :- काम, क्रोध ,मोह, लोभ से संबंधित अनात्म वस्तुओं का स्मरण ना करें ।
8. सम्यक समाधि:- समाधि अर्थात मन को वश में कर चित्र को आत्म कल्याण के लिए एकाग्र करें।
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इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध दर्शन की समानता योग के महत्वपूर्ण ग्रंथ योग दर्शन से मिलती है तथा योग दर्शन का भी प्रतिपाद्य विषय केवल्य( समाधि) की प्राप्ति है जिसे बौद्ध आचार्य निर्वाण कहते हैं।  
योग की अन्य परिभाषाएं:– हमने विविध ग्रंथों तथा भारतीय चिंतन में योग की परिभाषा और स्वरूप को आत्मसात किया है अब कुछ अन्य परिभाषाएं व स्वरूप को अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं आप इन परिभाषाएं तथा पूर्व में वर्णित योग के विविध आयामों को अवश्य अपने जीवन में उतारेंगे।
  महर्षि व्यास के अनुसार:- योग: समाधि: योग को समाधि बतलाया है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के अनुसार :- निष्काम कर्म करने में सच्चे धर्म का पालन है यही वास्तविक योग है। परमात्मा के शाश्वत और अखंड ज्योति के साथ अपनी ज्योति को मिला देना वास्तविक योग है।
महा ऋषि याज्ञवल्क्य के अनुसार:- जीवात्मा व परमात्मा के संयोग की अवस्था का नाम योग है।
श्री राम शर्मा आचार्य के अनुसार :- जीवन जीने की कला ही योग है।
शंकराचार्य जी के अनुसार:- ब्रह्म को सत्य मानते हुए और इस संसार के प्रति मिथ्या दृष्टि रखना ही योग है कहा गया है – “ब्रह्मसत्यं जगत्मिथ्या”
रागी राघव के अनुसार :-शिव और शक्ति का मिलन योग है । उपरोक्त विविध परिभाषाओं में अवलोकन के उपरांत कहा जा सकता है।

आत्मा+परमात्मा=योग 

इति……

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